रविवार, 22 मार्च 2009

हमारे पर हमारे माँ-बाप का असर

मुझे अपने माता पिता में इतनी सारी कमियाँ दिखती हैं। ज़ाहिर सी बात है उसमें उन की कोई गलती नहीं क्योंकि वह उन्हें उनके माँ बाप या उनके हालात से मिलीं। और ये भी ज़ाहिर सी बात है कि इनमें से कईं मुझ में होंगीं। मुझे ढूँढ ढूँढ कर अपने में उन कमियों को खोजना है और उन्हें अपने से निकालना है।

क्या ऐसी कोई तकनीक नहीं है जिसमें हम अपने में मौजूद कमियों को ढूँढते हैं और पाने पर उन्हें अपने से निकालने की प्रक्रिया करते हैं। ज़रूर ऐसी कोई तकनीक होगी और हमें सबसे पहले ऐसी तकनीक को खोजना है और ऐसी तकनीक का आचरण किए हुए उस व्यक्ति से उसके अनुभव को जानना है।

कुछ विचार जो ज़हन में आते हैं कि एक हो सकती है वह है विपाश्यना जिसमें आप खुद का निरीक्षण करते हैं जिसमें शारीरिक व मानसिक निरीक्षण शामिल होता है। चलो ये मान लिया कि पूर्वी चिन्तन का ये एक नमूना है और इससे मिलते जुलते कुछ और चिन्तन भी ज़रूर मिल जाएँगे।

एक लाभकारी कदम होगा कि हम कुछ पश्चिमी चिन्तन में भी कुछ इस मुद्दे से जुड़े़ कुछ विचारों को खोजें। यह खासकर इसलिए भी ज़रूरी हो जाता है क्योंकि पश्चिमी विचार-धारा अब सिर्फ पश्चिमी विरासत न रहके बलकि एक वैश्विक विचार-धारा बन चुकी है। इसमें सिर्फ पश्चिमी विचारकों का ही नहीं योगदान है बलकि पूर्व के चिन्तक भी इस विचार-धारा के पूरक हैं।

जो एक तकनीक या विचार धारा मेरे ज़हन में आती है वह है ट्राँज़ॅक्षनल अनॅलिसिस् जिसमें यह माना जाता है कि हम अपने माँ बाप कि अच्छी व बुरी आदतों के सम्वाहक होते हैं।

शनिवार, 21 मार्च 2009

मार्च की दावत

कल हम सभी बाहर खाना खानें गये। ये तो नहीं कह सकते की बहोत मज़ा आया, मगर मज़ा तो ज़रूर आया। ये देखें की क्यों मज़ा आया :
  • क्योंकि खाना स्वादिषट था,
  • क्योंकि हम काफ़ी समय बाद बाहर खा रहे थे,
  • क्योंकि यह रोज से थोड़ा हट कर था,
  • क्योंकि इसमें सभी ने अपनी मन पसंद व्ञनजन खाए,
  • क्योंकि हमें न कहीं जाने की जल्दी थी न ही कहीं पहोंचने की,
  • और अंत में जो सबसे महत्वपूर्ण कारण था – पेट भर खाने से किसे मज़ा नहीं आता। पेट भरते ही हमारे परिवार का शेर भी भीगी बिल्ली बन चुका था।